सफ़र कविता | Safar Poem

कविता: सफ़र /Safar

जाने कब कोशिशों के पंख कतर दिए गए
                     हौसला उड़ ही न पाया चाहत की जमीं से

चर्चा भी चली सुगबुगाहट भी होती रही
                    कोई नहीं आया तसल्ली के बोल लेकर

सब तमाशबीनों की तरह आँखें गड़ाये थे
                    बेताब था सारा शहर उसे टूटता देखने को

जाने कहाँ से एक रौशनी आयी ठहर गई
                    ऐसा लगा दूर किसी सफ़र से आई हुई है

फिर क्या था आँखें चमक उठी एकदम 
                    गिरते पड़ते फिर उठ गया वो जाने कैसे 

अमीर-ए-शहर को एक बार फिर मात देकर
हताशा के लिपटे हुए धूल झटक कर 

पर इस बार जरूर कहीं कुछ बदला हुआ था 
                    क्यूंकी चेहरे पर ना कोई ख़ुशी थी ना ग़म 

निकल पड़ा फिर कहीं बिना सोचे समझे
                    सफ़र जारी रखना यही उसका ख्वाब था





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