विश्वास, भक्ति, आनंद एक दिव्य यात्रा | Vishwas, Bhakti, Aanand Ek Divya Yatra

जीवन का उद्देश्य तलाशता हुआ मनुष्य 

अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखने वालों ने इसे नीला ग्रह कहकर संबोधित किया ।  इस ग्रह पर फैले विशालकाय महासागर, घने जंगल, बादलों को छूने वाली पर्वत श्रृंखलाएं, बस देखते बनती हैं । प्रकृति के इन्हीं खूबसूरत नजारों के बीच रहते हैं 'परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति कहलाए जाने वाले, "मानव" । 

आदिमानव के रूप में वनों में दौड़ -भाग कर शिकार करने से लेकर, आज प्रगति की बुलंदियों तक पहुंचने वाले मनुष्यों ने कितने कमाल का सफर तय किया है । इन उपलब्धियों के लिए आज समस्त मानव जाति बधाई की पात्र है । 

परंतु भोजन के लिए जंगलों में लगाई हुई दौड़ से लेकर आज सुख - सुविधाओं के लिए दिन रात दौड़ने वाला मानव उन्हीं भौतिक (दुनियावी) वस्तुओं में उलझकर रह गया, और उन्हीं में अपना सुकून ढूंढने लगा । ये सारी वस्तुएं कुछ क्षण का सुख तो जरूर दे सकतीं हैं पर एक सीमा के बाद नीरस हो जाती हैं । और फिर सारी भाग दौड़ जैसे व्यर्थ प्रतीत होने लगती है। 

जैसे संत कबीर कहते हैं 
वस्तु कहीं, ढूंढे कहीं,....
केहि विधि आवे हाथ.. !
कहे कबीर वस्तु तब पाईये..
भेदी लीजे साथ..!!

कोई मार्गदर्शक जब तक जीवन में आकर आनंद के स्त्रोत के साथ जोड़ नहीं देता, "सुकून के उद्गम स्थान से एकाकार नहीं करवा देता" तब तक अधूरापन कायम रहता है ।

मुरीद की जिंदगी उस पल खुशियों से भर जाती है, जब प्रश्नों की तलाश उसे सतगुरु से रूबरू कराती है । उस क्षण सारी पिपासा शांत हो जाती है । 

कर कर यत्न हज़ारों देखे पर यह वश में आया ना 
कहे अवतार गुरु ने जब तक पर्दा दूर हटाया ना 
(पद क्र.१३)

ब्रह्मज्ञान एक ऐसा करिश्मा है जो मानव को एक पल में एहसास करवा देती है की वो केवल शरीर नहीं है।  इंसान की इंद्रियों से परे मन होता है, मन से परे बुद्धि, इस बुद्धि से परे जीव और जीव से परे परमात्मा । यही परमात्मा सत चित आनंद है । 
इसलिए ये ज्ञान अपने आप में पूर्ण है ।

वेदान्त का ब्रह्म सूत्र भी कहता है 
एकम् ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते किंचन
अर्थात ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं हैं .. ।

जिसे जानकर फिर कुछ जानना बाकी नहीं रह जाता । 
जैसे ही जानकारी हो जाती है मानव देखता है की सांसारिक सुख ही एकमात्र सुख नहीं है ।
और मन की तमाम कल्पनाएं केवल मृगतृष्णा की तरह उसका समय व्यर्थ करवा रहीं थी । 

इंसान अब तक जिस आनंद को ढूंढ रहा था वो केवल सत्य की जानकारी में छिपी हुई थी । यही इस जीवन की सुंदरता है की मानव तन में इस गूढ़ रहस्य को जाना जा सकता है । पृथ्वी पर अन्य जीव इतने सक्षम नहीं है और  उनकी चेतना का विस्तार इतना नहीं है की वो अपने जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा पा लें । 

अंग - संग बसे हुए निराकार रूपी सत्य, को जानने का अनुभव करने का मौका केवल मनुष्य को है । जिसके बारे में आज तक धरा धाम के हर संत ने बखान किया । 

यही वो दिव्य ज्ञान था जिसको पाकर, संत कबीर को झोपड़ी में भी महलों का आनंद आया । यही वो ज्ञान है जिसको पाकर सूली पर लटकने वाले ईसा मसीह अपने विरोधकों के लिए क्षमा याचना कर रहे थे ।
शहंशाह बाबा अवतार जी भी मानवता भरे गुण की मिसाल पेश करते हुए अपने बारे में बुरा बोलने वालों को पीने का पानी भिजवाकर उनकी सेवा करते हैं । 
कैसे उत्पन्न होते हैं ऐसे नेकी भरे विचार ? 
कौन सी वो ऊर्जा है जो प्रेम, दया, सहनशीलता मानवता, एवं करुणा के भावों को जन्म देती है । 
जिस प्रकार जबान पर मिठाई रखने पर उसकी मिठास अपने आप स्वाद देती है । कोई अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता 
ठीक ऐसे ही जब ब्रम्हज्ञान होता है तब अपने आप ये सारे दैवीय गुण अपना स्थान बना ही लेते हैं । 

जब सतगुरु अपने शिष्य को यह अमोलक दात देकर उसके भक्ति सफर को प्रारंभ करवाता है, तो उसकी सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि ज्ञान के बाद सभी कर्म अपने आप भक्ति की श्रेणी में ही आ जाते हैं । 
अब जीवन के हर कार्य अथवा जिम्मेदारी को निभाते हुए भक्ति हो रही होती है। 
अब सत्य को जान लिया तो हर पल "सत् का संग अर्थात सत्संग" बन गया । और इसी सत् का जब एहसास होता रहा तो सिमरन बना । और हर वो कार्य जिसको निरंकार परमात्मा की अनुभूति से किया वो सेवा में तब्दील हो गया । 

सतगुरु तो वही है जो भक्ति मार्ग को सरल कर दे । और जिसका भक्ति मार्ग सहज हो गया वो अपने आप निर्भय भी हो जाता है । 
"जैसे कोई मुसाफिर अपने जेब में जब उचित टिकट लेकर यात्रा करता है तब वो अपने स्थान पर घबराकर नहीं बैठता । उसे कोई डर नहीं सताता वो यात्रा का आनंद लेता है । रास्ते में पड़ रहे हर एक पड़ाव को सुकून की दृष्टि से देखता जाता है"
यही मानव का जीवन का सारांश भी है |

इस जगत में सहज जीवन जीने के लिए परमात्मा रूपी टिकट का होना बहुत जरूरी है वरना जीव मृत्युलोक में डरता रहेगा और जिस मनुष्य ने सर्वेश्वर का आधार ले लिया वो निश्चिंत हो गया स्थिर हो गया । 
और स्थिरता के साथ जीने वाला मनुष्य ही
आनंद से लबरेज़ हो सकता है । और आनंद का तो एक ही स्त्रोत है परमानंद जिसे हम निर्गुण निराकार ब्रह्म कहते हैं । 



विश्वास, भक्ति, आनंद 


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